Sunday, July 18, 2010

असल नहीं नकल

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
असल नहीं नकल

नकल करने वालों ने
असल को भी मात दे दी
तभी तो खुद चार्ली चैपलिन
चौथे नम्बर पर आया
चार्ली चैपलिन जैसा दिखने की प्रतियोगिता में।
वह चीखा चिल्लाया पर
तमाम नक्कालों के बीच
यह साबित नहीं कर पाया कि
उससे ज्यादा असल और कोई नहीं
पर यह दुनिया का चलन देखो
नक्काल बन गया
पुरस्कार का भागी
और असल बन गया
हार से खीझा प्रतिभागी।
आज की दुनिया में
बेकार है असल होना
याद रखो ज्यादा जरुरी है
उम्दा नकल होना

Saturday, May 15, 2010

कविता - सच्चाई

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

क्षितिज के पार
अँधेरों और उजालों से परे
जो एक प्रयाण है
वही सत्य है
सिर्फ वही।

वहाँ पहुँच
कोई किसी के लिए
कुछ नहीं करता
कर भी नहीं सकता।

ऐसे में मेरा
या किसी और का
क्या योगदान हो सकता है
सिवाय इसके कि
मैंने तुम्हें कोई चोट कोई जख्म
नहीं दिया।

स्मृति तो होगी नहीं
बस एक हल्कापन होगा
जिसका एक अंश मेरा होगा
सिर्फ एक अंश
शायद।

Wednesday, April 14, 2010

जियो और जीने दो


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

जियो और जीने दो

पच्चीस करोड़ साल पहले धरती पर
कहते हैं कि एक भी डाइनोसोर नहीं था
फिर एक समय उनका राज था
बहुत ताकतवर थे वे
हर तरफ उनका अत्याचार था
बाकी सबका जीना दुश्वार था

लेकिन फिर कुछ हुआ
सब के सब खत्म हो गये
एक भी नहीं बचा।

दो लाख साल पहले धरती पर
कहते हैं कि एक भी इंसान नहीं था
पर आज इनका राज है
ये भी बहुत ताकतवर हैं
सब तरफ इनका भी अत्याचार है
बाकी सब जीवों का जीना दुश्वार है।
रहने के लिए वनस्पतियों को मिटा रहा है
खाने के लिए जानवरों को उगा रहा है
आकाश को धुँए से भर के
धरती के संतुलन को भगा रहा है।

पहले की तरह ही अबकी बार भी
कुछ न कुछ तो होगा
इसलिए तब तक
स्वार्थी इंसानों
मनु की मूर्ख संतानों
अपने पाँव खींचो
धरती को सींचो
अगर नहीं है जीवाश्म बन के जीना
तो जियो और जीनो दो ।

Sunday, April 4, 2010

थोड़ा यूँ ही


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


थोड़ा यूँ ही
ब्लॉग्स की पहुँच और असर को अब तक नजरंदाज करके मैंने कोई बुद्धिमानी का काम नहीं किया है, इस बात का एहसास कुछ दिन से लगातार हो रहा था। शायद इस सबको आज का ही इंतजार था जब मेरे पास यह न करने का और कोई बहाना न रहा। और अब मैं कुछ यूँ ही के साथ प्रस्तुत हूँ।
मैं कोई बहुत सामाजिक प्राणी नहीं हूँ, मतलब मैं हफ्ते में दो चार लोगों से मिलकर ही संतुष्ट हो जाता हूँ। मुझे पता नहीं कि इससे अधिक लोगों के साथ मैं एक साथ जुड़ने पर कैसे निभा पाऊँगा।
दूसरी बात यह है कि कभी कभी कुछ कहने का मन करता है और मैं उसी के तहत कुछ विचार आपके साथ साझा करूँगा। आप के सुझावों का स्वागत रहेगा। एक कविता प्रस्तुत है।

मनोज तिवारी

एक दो तीन चार

शुरु शुरु में
वे चार इंसान थे,
उनके पास रोटियाँ थी, चार
तीन उससे ज्यादा ताकतवर थे,
उसने दो को आपस में लड़वा दिया,
एक को मरवा दिया,
फिर एक को भगा दिया,
अब एक जो बच गया,
उसे अपने साथ मिला लिया
और भूखा सुला दिया।

अब वो था अकेला, एक
और रोटियाँ थीं चार
सारी उसने अकेले खा लीं
खाते ही उसके पैर हो गये, चार
आँखें हो गयीं, तीन
सिर पर निकल आए सींग, दो
लटकने लगी काँटेदार पूँछ, एक
क्योंकि अब वह बन चुका था एक शैतान,
और उसे लग रही थी
बहुत जोरों की भूख।