Saturday, May 15, 2010
कविता - सच्चाई
क्षितिज के पार
अँधेरों और उजालों से परे
जो एक प्रयाण है
वही सत्य है
सिर्फ वही।
वहाँ पहुँच
कोई किसी के लिए
कुछ नहीं करता
कर भी नहीं सकता।
ऐसे में मेरा
या किसी और का
क्या योगदान हो सकता है
सिवाय इसके कि
मैंने तुम्हें कोई चोट कोई जख्म
नहीं दिया।
स्मृति तो होगी नहीं
बस एक हल्कापन होगा
जिसका एक अंश मेरा होगा
सिर्फ एक अंश
शायद।
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