Wednesday, April 14, 2010

जियो और जीने दो


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

जियो और जीने दो

पच्चीस करोड़ साल पहले धरती पर
कहते हैं कि एक भी डाइनोसोर नहीं था
फिर एक समय उनका राज था
बहुत ताकतवर थे वे
हर तरफ उनका अत्याचार था
बाकी सबका जीना दुश्वार था

लेकिन फिर कुछ हुआ
सब के सब खत्म हो गये
एक भी नहीं बचा।

दो लाख साल पहले धरती पर
कहते हैं कि एक भी इंसान नहीं था
पर आज इनका राज है
ये भी बहुत ताकतवर हैं
सब तरफ इनका भी अत्याचार है
बाकी सब जीवों का जीना दुश्वार है।
रहने के लिए वनस्पतियों को मिटा रहा है
खाने के लिए जानवरों को उगा रहा है
आकाश को धुँए से भर के
धरती के संतुलन को भगा रहा है।

पहले की तरह ही अबकी बार भी
कुछ न कुछ तो होगा
इसलिए तब तक
स्वार्थी इंसानों
मनु की मूर्ख संतानों
अपने पाँव खींचो
धरती को सींचो
अगर नहीं है जीवाश्म बन के जीना
तो जियो और जीनो दो ।

Sunday, April 4, 2010

थोड़ा यूँ ही


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


थोड़ा यूँ ही
ब्लॉग्स की पहुँच और असर को अब तक नजरंदाज करके मैंने कोई बुद्धिमानी का काम नहीं किया है, इस बात का एहसास कुछ दिन से लगातार हो रहा था। शायद इस सबको आज का ही इंतजार था जब मेरे पास यह न करने का और कोई बहाना न रहा। और अब मैं कुछ यूँ ही के साथ प्रस्तुत हूँ।
मैं कोई बहुत सामाजिक प्राणी नहीं हूँ, मतलब मैं हफ्ते में दो चार लोगों से मिलकर ही संतुष्ट हो जाता हूँ। मुझे पता नहीं कि इससे अधिक लोगों के साथ मैं एक साथ जुड़ने पर कैसे निभा पाऊँगा।
दूसरी बात यह है कि कभी कभी कुछ कहने का मन करता है और मैं उसी के तहत कुछ विचार आपके साथ साझा करूँगा। आप के सुझावों का स्वागत रहेगा। एक कविता प्रस्तुत है।

मनोज तिवारी

एक दो तीन चार

शुरु शुरु में
वे चार इंसान थे,
उनके पास रोटियाँ थी, चार
तीन उससे ज्यादा ताकतवर थे,
उसने दो को आपस में लड़वा दिया,
एक को मरवा दिया,
फिर एक को भगा दिया,
अब एक जो बच गया,
उसे अपने साथ मिला लिया
और भूखा सुला दिया।

अब वो था अकेला, एक
और रोटियाँ थीं चार
सारी उसने अकेले खा लीं
खाते ही उसके पैर हो गये, चार
आँखें हो गयीं, तीन
सिर पर निकल आए सींग, दो
लटकने लगी काँटेदार पूँछ, एक
क्योंकि अब वह बन चुका था एक शैतान,
और उसे लग रही थी
बहुत जोरों की भूख।