Sunday, April 4, 2010

थोड़ा यूँ ही


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


थोड़ा यूँ ही
ब्लॉग्स की पहुँच और असर को अब तक नजरंदाज करके मैंने कोई बुद्धिमानी का काम नहीं किया है, इस बात का एहसास कुछ दिन से लगातार हो रहा था। शायद इस सबको आज का ही इंतजार था जब मेरे पास यह न करने का और कोई बहाना न रहा। और अब मैं कुछ यूँ ही के साथ प्रस्तुत हूँ।
मैं कोई बहुत सामाजिक प्राणी नहीं हूँ, मतलब मैं हफ्ते में दो चार लोगों से मिलकर ही संतुष्ट हो जाता हूँ। मुझे पता नहीं कि इससे अधिक लोगों के साथ मैं एक साथ जुड़ने पर कैसे निभा पाऊँगा।
दूसरी बात यह है कि कभी कभी कुछ कहने का मन करता है और मैं उसी के तहत कुछ विचार आपके साथ साझा करूँगा। आप के सुझावों का स्वागत रहेगा। एक कविता प्रस्तुत है।

मनोज तिवारी

एक दो तीन चार

शुरु शुरु में
वे चार इंसान थे,
उनके पास रोटियाँ थी, चार
तीन उससे ज्यादा ताकतवर थे,
उसने दो को आपस में लड़वा दिया,
एक को मरवा दिया,
फिर एक को भगा दिया,
अब एक जो बच गया,
उसे अपने साथ मिला लिया
और भूखा सुला दिया।

अब वो था अकेला, एक
और रोटियाँ थीं चार
सारी उसने अकेले खा लीं
खाते ही उसके पैर हो गये, चार
आँखें हो गयीं, तीन
सिर पर निकल आए सींग, दो
लटकने लगी काँटेदार पूँछ, एक
क्योंकि अब वह बन चुका था एक शैतान,
और उसे लग रही थी
बहुत जोरों की भूख।

8 comments:

  1. नए प्रकार की इस सार्थक रचना के साथ ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है,
    मनुष्य की बदलती हुई मानसिकता के सफल चित्रण के लिए बधाई

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  2. चलिये अच्छी शुरुआत रही

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  3. अब वो था अकेला, एक
    और रोटियाँ थीं चार
    सारी उसने अकेले खा लीं
    खाते ही उसके पैर हो गये, चार
    आँखें हो गयीं, तीन
    सिर पर निकल आए सींग, दो
    लटकने लगी काँटेदार पूँछ, एक
    क्योंकि अब वह बन चुका था एक शैतान,
    और उसे लग रही थी
    बहुत जोरों की भूख।
    Karara vyang!

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  4. ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है... इसी तरह तबियत से लिखते रहिये, हिंदी में आपका लेखन सराहनीय है, धन्यवाद

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  5. Bhai Manoj ,
    Swagat Hai. Par Aisa na likhna pade ki - There was a time when I used to write , not any more.

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  6. सभी मित्रों का शुभकामनाओं और सुवचनों के लिए धन्यवाद।

    मनोज

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